डॉक्टर बहुत कहते है के अन्डे खाना बहुत आवश्यक है और उनका हिसाब किताब प्रोटीन वाला है !...प्रोटीन इसमें ज्यादा है विटामिन A ज्यादा है । हमारे डॉक्टर जो पढाई करते है जैसे MBBS , MS, MD ये पूरी पढाई से आई है मने यूरोप से आयें हैं और यूरोप में जो लोग होंगे उनके पास मांस और अन्डे के इलावा और कुछ नही होगा । तो उनकी जो पुस्तके है उनमे वो ही लिखा जायेगा जो वहाँ उपलब्ध है । और यूरोप में पूरा इलाका बहुत ठंडा है !6 महीने बर्फ पड़ी रहती है ! सब्जी होती नही , दाल होती नही हैं ! पर अंडा बहुत मिलता है कियोंकि मुर्गियां बहुत है ।
अब हमारे देश में भी वो ही चिकित्सा पढ़ा रहे है क्यूंकि आजादी के 67 साल बाद भी कोई कानून बदला नहीं गया ! पर उस चिकित्सा को हमने हमारे देश की जरुरत के हिसाब से बदल नही किया मने उन पुस्तकों में बदवाल होना चाहिए , उसमे लिखा होना चाहिए भारत में अन्डे की जरुरत नही है कियोंकि भारत में अन्डे का बिकल्प बहुत कुछ है । पर ये बदवाल हुआ नही और डॉक्टर वो पुस्तक पढ़ कर निकलते है और बोलते रहते है अन्डे खाओ मांस खाओ । आयुर्वेद की पढाई पढ़ कर जो डॉक्टर निकलते है वो कभी नही कहते के अन्डे खाओ । अन्डे में प्रोटीन है पर सबसे जादा प्रोटीन तो उड़द की दाल में है , फिर चने की डाल , मसूर की डाल ; अन्डे में विटामिन A हैं पर उससे ज्यादा दूध में है ।
निचे दिए गए लिंक पे जाके विडियो देखे :
http://www.youtube.com/watch?v=nXaQ0JS5iIs
क्या आप जानते हैं कि..... हमारे देश का नाम ............... “भारतवर्ष” कैसे पड़ा....?????साथ ही क्या आप जानते हैं कि....... हमारे प्राचीन हमारे महादेश का नाम ....."जम्बूदीप" था....?????परन्तु..... क्या आप सच में जानते हैं जानते हैं कि..... हमारे हमारे महादेश को ""जम्बूदीप"" क्यों कहा जाता है ... और, इसका मतलब क्या होता है .....??????
दरअसल..... हमारे लिए यह जानना बहुत ही आवश्यक है कि ...... भारतवर्ष का नाम भारतवर्ष कैसे पड़ा.........????
क्योंकि.... एक सामान्य जनधारणा है कि ........महाभारत एक कुरूवंश में राजा दुष्यंत और उनकी पत्नी शकुंतला के प्रतापी पुत्र ......... भरत के नाम पर इस देश का नाम "भारतवर्ष" पड़ा...... परन्तु इसका साक्ष्य उपलब्ध नहीं है...!
लेकिन........ वहीँ हमारे पुराण इससे अलग कुछ अलग बात...... पूरे साक्ष्य के साथ प्रस्तुत करता है......।
आश्चर्यजनक रूप से......... इस ओर कभी हमारा ध्यान नही गया..........जबकि पुराणों में इतिहास ढूंढ़कर........ अपने इतिहास के साथ और अपने आगत के साथ न्याय करना हमारे लिए बहुत ही आवश्यक था....।
परन्तु , क्या आपने कभी इस बात को सोचा है कि...... जब आज के वैज्ञानिक भी इस बात को मानते हैं कि........ प्राचीन काल में साथ भूभागों में अर्थात .......महाद्वीपों में भूमण्डल को बांटा गया था....।
लेकिन ये सात महाद्वीप किसने और क्यों तथा कब बनाए गये.... इस पर कभी, किसी ने कुछ भी नहीं कहा ....।
अथवा .....दूसरे शब्दों में कह सकता हूँ कि...... जान बूझकर .... इस से सम्बंधित अनुसंधान की दिशा मोड़ दी गयी......।
परन्तु ... हमारा ""जम्बूदीप नाम "" खुद में ही सारी कहानी कह जाता है ..... जिसका अर्थ होता है ..... समग्र द्वीप .
इसीलिए.... हमारे प्राचीनतम धर्म ग्रंथों तथा... विभिन्न अवतारों में.... सिर्फ "जम्बूद्वीप" का ही उल्लेख है.... क्योंकि.... उस समय सिर्फ एक ही द्वीप था...
साथ ही हमारा वायु पुराण ........ इस से सम्बंधित पूरी बात एवं उसका साक्ष्य हमारे सामने पेश करता है.....।
वायु पुराण के अनुसार........ त्रेता युग के प्रारंभ में ....... स्वयम्भुव मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र ने........ इस भरत खंड को बसाया था.....।
चूँकि महाराज प्रियव्रत को अपना कोई पुत्र नही था......... इसलिए , उन्होंने अपनी पुत्री के पुत्र अग्नीन्ध्र को गोद ले लिया था....... जिसका लड़का नाभि था.....!
नाभि की एक पत्नी मेरू देवी से जो पुत्र पैदा हुआ उसका नाम........ ऋषभ था..... और, इसी ऋषभ के पुत्र भरत थे ...... तथा .. इन्ही भरत के नाम पर इस देश का नाम...... "भारतवर्ष" पड़ा....।
उस समय के राजा प्रियव्रत ने ....... अपनी कन्या के दस पुत्रों में से सात पुत्रों को......... संपूर्ण पृथ्वी के सातों महाद्वीपों के अलग-अलग राजा नियुक्त किया था....।
राजा का अर्थ उस समय........ धर्म, और न्यायशील राज्य के संस्थापक से लिया जाता था.......।
इस तरह ......राजा प्रियव्रत ने जम्बू द्वीप का शासक .....अग्नीन्ध्र को बनाया था।
इसके बाद ....... राजा भरत ने जो अपना राज्य अपने पुत्र को दिया..... और, वही " भारतवर्ष" कहलाया.........।
ध्यान रखें कि..... भारतवर्ष का अर्थ है....... राजा भरत का क्षेत्र...... और इन्ही राजा भरत के पुत्र का नाम ......सुमति था....।
इस विषय में हमारा वायु पुराण कहता है....—
सप्तद्वीपपरिक्रान्तं जम्बूदीपं निबोधत।
अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम।।
प्रियव्रतोअभ्यषिञ्चतं जम्बूद्वीपेश्वरं नृपम्।।
तस्य पुत्रा बभूवुर्हि प्रजापतिसमौजस:।
ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरूषोअनुज:।।
नाभेर्हि सर्गं वक्ष्यामि हिमाह्व तन्निबोधत। (वायु 31-37, 38)
मैं अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए..... रोजमर्रा के कामों की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहूँगा कि.....
हम अपने घरों में अब भी कोई याज्ञिक कार्य कराते हैं ....... तो, उसमें सबसे पहले पंडित जी.... संकल्प करवाते हैं...।
हालाँकि..... हम सभी उस संकल्प मंत्र को बहुत हल्के में लेते हैं... और, उसे पंडित जी की एक धार्मिक अनुष्ठान की एक क्रिया मात्र ...... मानकर छोड़ देते हैं......।
परन्तु.... यदि आप संकल्प के उस मंत्र को ध्यान से सुनेंगे तो.....उस संकल्प मंत्र में हमें वायु पुराण की इस साक्षी के समर्थन में बहुत कुछ मिल जाता है......।
संकल्प मंत्र में यह स्पष्ट उल्लेख आता है कि........ -जम्बू द्वीपे भारतखंडे आर्याव्रत देशांतर्गते….।
संकल्प के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं..... क्योंकि, इनमें जम्बूद्वीप आज के यूरेशिया के लिए प्रयुक्त किया गया है.....।
इस जम्बू द्वीप में....... भारत खण्ड अर्थात भरत का क्षेत्र अर्थात..... ‘भारतवर्ष’ स्थित है......जो कि आर्याव्रत कहलाता है....।
इस संकल्प के छोटे से मंत्र के द्वारा....... हम अपने गौरवमयी अतीत के गौरवमयी इतिहास का व्याख्यान कर डालते हैं......।
परन्तु ....अब एक बड़ा प्रश्न आता है कि ...... जब सच्चाई ऐसी है तो..... फिर शकुंतला और दुष्यंत के पुत्र भरत से.... इस देश का नाम क्यों जोड़ा जाता है....?
इस सम्बन्ध में ज्यादा कुछ कहने के स्थान पर सिर्फ इतना ही कहना उचित होगा कि ...... शकुंतला, दुष्यंत के पुत्र भरत से ......इस देश के नाम की उत्पत्ति का प्रकरण जोडऩा ....... शायद नामों के समानता का परिणाम हो सकता है.... अथवा , हम हिन्दुओं में अपने धार्मिक ग्रंथों के प्रति उदासीनता के कारण ऐसा हो गया होगा... ।
परन्तु..... जब हमारे पास ... वायु पुराण और मन्त्रों के रूप में लाखों साल पुराने साक्ष्य मौजूद है .........और, आज का आधुनिक विज्ञान भी यह मान रहा है कि..... धरती पर मनुष्य का आगमन करोड़ों साल पूर्व हो चुका था, तो हम पांच हजार साल पुरानी किसी कहानी पर क्यों विश्वास करें....?????
सिर्फ इतना ही नहीं...... हमारे संकल्प मंत्र में.... पंडित जी हमें सृष्टि सम्वत के विषय में भी बताते हैं कि........ अभी एक अरब 96 करोड़ आठ लाख तिरेपन हजार एक सौ तेरहवां वर्ष चल रहा है......।
फिर यह बात तो खुद में ही हास्यास्पद है कि.... एक तरफ तो हम बात ........एक अरब 96 करोड़ आठ लाख तिरेपन हजार एक सौ तेरह पुरानी करते हैं ......... परन्तु, अपना इतिहास पश्चिम के लेखकों की कलम से केवल पांच हजार साल पुराना पढ़ते और मानते हैं....!
आप खुद ही सोचें कि....यह आत्मप्रवंचना के अतिरिक्त और क्या है........?????
इसीलिए ...... जब इतिहास के लिए हमारे पास एक से एक बढ़कर साक्षी हो और प्रमाण ..... पूर्ण तर्क के साथ उपलब्ध हों ..........तो फिर , उन साक्षियों, प्रमाणों और तर्कों केआधार पर अपना अतीत अपने आप खंगालना हमारी जिम्मेदारी बनती है.........।
हमारे देश के बारे में .........वायु पुराण का ये श्लोक उल्लेखित है.....—-हिमालयं दक्षिणं वर्षं भरताय न्यवेदयत्।तस्मात्तद्भारतं वर्ष तस्य नाम्ना बिदुर्बुधा:.....।।
यहाँ हमारा वायु पुराण साफ साफ कह रहा है कि ......... हिमालय पर्वत से दक्षिण का वर्ष अर्थात क्षेत्र भारतवर्ष है.....।
इसीलिए हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि......हमने शकुंतला और दुष्यंत पुत्र भरत के साथ अपने देश के नाम की उत्पत्ति को जोड़कर अपने इतिहास को पश्चिमी इतिहासकारों की दृष्टि से पांच हजार साल के अंतराल में समेटने का प्रयास किया है....।
ऐसा इसीलिए होता है कि..... आज भी हम गुलामी भरी मानसिकता से आजादी नहीं पा सके हैं ..... और, यदि किसी पश्चिमी इतिहास कार को हम अपने बोलने में या लिखने में उद्घ्रत कर दें तो यह हमारे लिये शान की बात समझी जाती है........... परन्तु, यदि हम अपने विषय में अपने ही किसी लेखक कवि या प्राचीन ग्रंथ का संदर्भ दें..... तो, रूढि़वादिता का प्रमाण माना जाता है ।
और.....यह सोच सिरे से ही गलत है....।
इसे आप ठीक से ऐसे समझें कि.... राजस्थान के इतिहास के लिए सबसे प्रमाणित ग्रंथ कर्नल टाड का इतिहास माना जाता है.....।
परन्तु.... आश्चर्य जनक रूप से .......हमने यह नही सोचा कि..... एक विदेशी व्यक्ति इतने पुराने समय में भारत में ......आकर साल, डेढ़ साल रहे और यहां का इतिहास तैयार कर दे, यह कैसे संभव है.....?
विशेषत: तब....... जबकि उसके आने के समय यहां यातायात के अधिक साधन नही थे.... और , वह राजस्थानी भाषा से भी परिचित नही था....।
फिर उसने ऐसी परिस्थिति में .......सिर्फ इतना काम किया कि ........जो विभिन्न रजवाड़ों के संबंध में इतिहास संबंधी पुस्तकें उपलब्ध थीं ....उन सबको संहिताबद्घ कर दिया...।
इसके बाद राजकीय संरक्षण में करनल टाड की पुस्तक को प्रमाणिक माना जाने लगा.......और, यह धारणा बलवती हो गयीं कि.... राजस्थान के इतिहास पर कर्नल टाड का एकाधिकार है...।
और.... ऐसी ही धारणाएं हमें अन्य क्षेत्रों में भी परेशान करती हैं....... इसीलिए.... अपने देश के इतिहास के बारे में व्याप्त भ्रांतियों का निवारण करना हमारा ध्येय होना चाहिए....।
क्योंकि..... इतिहास मरे गिरे लोगों का लेखाजोखा नही है...... जैसा कि इसके विषय में माना जाता है........ बल्कि, इतिहास अतीत के गौरवमयी पृष्ठों और हमारे न्यायशील और धर्मशील राजाओं के कृत्यों का वर्णन करता है.....।
इसीलिए हिन्दुओं जागो..... और , अपने गौरवशाली इतिहास को पहचानो.....!
हम गौरवशाली हिन्दू सनातन धर्म का हिस्सा हैं.... और, हमें गर्व होना चाहिए कि .... हम हिन्दू हैं...!
रामायण-और-महाभारत-में-भी-परमाणु-बम-का-प्रमाणजी हाँ सही पढ़ रहे हैं आप । आदि अनंत एवं सनातन के प्रभु विश्वकर्मा जो कि नाना प्रकार के दैवीय अस्त्र-शस्त्र के निर्माणकर्ता रहे हैं। प्रमाणों के अनुसार देवराज इन्द्र के लिए बनाया गया ऋषि दधीचि की अस्थियों का वज्र एक ऐसा ही महा विनाशकरी हथियार था। आज के आधुनिक कालीन में जब विज्ञान परमाणु बमों की खोज कर रहा है। ये सब हिन्दू सभ्यता में पहले ही खोजे जा चुके हैं और सारे निर्माणों के कर्ता-धर्ता भगवान विश्वकर्मा हैं जिनके हम वंशज हैं।
आधुनिक भारत में अंग्रेजों के समय से जो इतिहास पढ़ाया जाता है वह चन्द्रगुप्त मौर्य के वंश से आरम्भ होता है। उससे पूर्व के इतिहास को ‘प्रमाण-रहित’ कहकर नकार दिया जाता है। हमारे ‘देशी अंग्रेजों’ को यदि सर जान मार्शल प्रमाणित नहीं करते तो हमारे ’बुद्धिजीवियों’ को विश्वास ही नहीं होना था कि हड़प्पा और मोहन जोदड़ो स्थल ईसा से लगभग 5000 वर्ष पूर्व के समय के हैं और वहाँ पर ही विश्व की प्रथम सभ्यता ने जन्म लिया था।
विदेशी इतिहासकारों के उल्लेख-
विश्व की प्राचीनतम् सिन्धुघाटी सभ्यता मोहन जोदड़ो के बारे में पाये गये उल्लेखों को सुलझाने के प्रयत्न अभी भी चल रहे हैं। जब पुरातत्व शास्त्रियों ने पिछली शताब्दी में मोहन जोदड़ो स्थल की खुदाई के अवशेषों का निरीक्षण किया था तो उन्होंने देखा कि वहाँ की गलियों में नर-कंकाल पड़े थे। कई अस्थि पिंजर चित अवस्था में लेटे थे और कई अस्थि पिंजरों ने एक दूसरे के हाथ इस तरह पकड़ रखे थे मानों किसी विपत्ति नें उन्हें अचानक उस अवस्था में पहुँचा दिया था।
उन नर कंकालों पर उसी प्रकार की रेडियो-ऐक्टीविटी के चिन्ह थे जैसे कि जापानी नगर हिरोशिमा और नागासाकी के कंकालों पर एटम बम विस्फोट के पश्चात देखे गये थे। मोहन जोदड़ो स्थल के अवशेषों पर नाईट्रिफिकेशन के जो चिन्ह पाये गये थे उसका कोई स्पष्ट कारण नहीं था क्योंकि ऐसी अवस्था केवल अणु बम के विस्फोट के पश्चात ही हो सकती है।
मोहनजोदड़ो की भौगोलिक स्थिति-
मोहन जोदड़ो सिन्धु नदी के दो टापुओं पर स्थित है। उसके चारों ओर दो किलोमीटर के क्षेत्र में तीन प्रकार की तबाही देखी जा सकती है जो मध्य केन्द्र से आरम्भ होकर बाहर की तरफ गोलाकार फैल गयी थी। पुरातत्व विशेषज्ञों ने पाया कि मिट्टी चूने के बर्तनों के अवशेष किसी ऊष्णता के कारण पिघल कर एक दूसरे के साथ जुड़ गये थे। हजारों की संख्या में वहां पर पाये गये ढेरों (मलवों) को पुरात्तव विशेषज्ञों ने काले पत्थरों ‘ब्लैक-स्टोन्स’ की संज्ञा दी। वैसी दशा किसी ज्वालामुखी से निकलने वाले लावे की राख के सूख जाने के कारण होती है। किन्तु मोहन जोदड़ो स्थल के आस पास कहीं भी कोई ज्वालामुखी की राख जमी हुयी नहीं पाई गयी।
निष्कर्ष यही हो सकता है कि किसी कारण अचानक ऊष्णता 2000 डिग्री तक पहुँची जिसमें चीनी मिट्टी के पके हुये बर्तन भी पिघल गये। अगर ज्वालामुखी नहीं था तो इस प्रकार की घटना अणु बम के विस्फोट के पश्चात ही घटती है।
महाभारत के आलेख-
इतिहास मौन है परन्तु महाभारत युद्ध में महासंहारक क्षमता वाले अस्त्र शस्त्रों और विमान व रथों के साथ एक एटामिक प्रकार के युद्ध का उल्लेख भी मिलता है। महाभारत में उल्लेख है कि मय दानव के विमान रथ का परिवृत 12 क्यूबिट था और उसमें चार पहिये लगे थे। देव-दानवों के इस युद्ध का वर्णन स्वरूप इतना विशाल है जैसे कि हम आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से लैस सेनाओं के मध्य परिकल्पना कर सकते हैं। इस युद्ध के वृतान्त से बहुत महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। केवल संहारक शस्त्रों का ही प्रयोग नहीं अपितु इन्द्र के वज्र अपने चक्रदार रफलेक्टर के माध्यम से संहारक रूप में प्रगट होता है। उस अस्त्र को जब दागा गया तो एक विशालकाय अग्नि पुंज की तरह उसने अपने लक्ष्य को निगल लिया था। वह विनाश कितना भयावह था इसका अनुमान महाभारत के निम्न स्पष्ट वर्णन से लगाया जा सकता हैः-
‘‘अत्यन्त शक्तिशाली विमान से एक शक्तियुक्त अस्त्र प्रक्षेपित किया गया धुएँ के साथ अत्यन्त चमकदार ज्वाला, जिसकी चमक दस हजार सूर्यों के चमक के बराबर थी, का अत्यन्त भव्य स्तम्भ उठा वह वज्र के समान अज्ञात अस्त्र साक्षात् मृत्यु का भीमकाय दूत था जिसने वृष्ण और अंधक के समस्त वंश को भस्म करके राख बना दिया। उनके शव इस प्रकार से जल गए थे कि पहचानने योग्य नहीं थे। उनके बाल और नाखून अलग होकर गिर गए थे। बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के बर्तन टूट गए थे और पक्षी सफेद पड़ चुके थे। कुछ ही घण्टों में समस्त खाद्य पदार्थ संक्रमित होकर विषैले हो गए। उस अग्नि से बचने के लिए योद्धाओं ने स्वयं को अपने अस्त्र-शस्त्रों सहित जलधाराओं में डुबा लिया’’
उपरोक्त वर्णन दृश्यरूप में हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु विस्फोट के दृश्य जैसा दृष्टिगत होता है।
एक अन्य वृतान्त में श्रीकृष्ण अपने प्रतिद्वन्दी शल्व का आकाश में पीछा करते हैं। उसी समय आकाश में शल्व का विमान ‘शुभः’ अदृष्य हो जाता है। उसको नष्ट करने के विचार से श्रीकृष्ण नें एक ऐसा अस्त्र छोड़ा जो आवाज के माध्यम से शत्रु को खोज कर उसे लक्ष्य कर सकता था। आजकल ऐसे मिसाईल्स को हीट-सीकिंग और साऊड-सीकरस कहते हैं और आधुनिक सेनाओं द्वारा प्रयोग किये जाते हैं।
राजस्थान से भी-
प्राचीन भारत में परमाणु विस्फोट के अन्य और भी अनेक साक्ष्य मिलते हैं। राजस्थान में जोधपुर से पश्चिम दिशा में लगभग दस मील की दूरी पर तीन वर्गमील का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पर रेडियोएक्टिव राख की मोटी सतह पाई जाती है, वैज्ञानिकों ने उसके पास एक प्राचीन नगर को खोद निकाला है जिसके समस्त भवन और लगभग पाँच लाख निवासी आज से लगभग 8,000 से 12,000 साल पूर्व किसी विस्फोट के कारण नष्ट हो गए थे।
‘लक्ष्मण-रेखा’ प्रकार की अदृष्य ‘इलेक्ट्रानिक फैंस’ तो कोठियों में आज कल पालतू जानवरों को सीमित रखने के लिये प्रयोग की जाती हैं, अपने आप खुलने और बन्द हो जाने वाले दरवाजे किसी भी माल में जा कर देखे जा सकते हैं। यह सभी चीजें पहले आश्चर्य जनक थीं परन्तु आज एक आम बात बन चुकी है। ‘मन की गति से चलने वाले’ रावण के पुष्पक-विमान का ‘प्रोटोटाईप’ भी उड़ान भरने के लिये चीन ने बना लिया है।
निःसंदेह रामायण तथा महाभारत के ग्रंथकार दो पृथक-पृथक ऋषि थे और आजकल की सेनाओं के साथ उनका कोई सम्बन्ध नहीं था। वह दोनांे महाऋषि थे और किसी साईंटिफिक फिक्शन के थ्रिल्लर-राईटर नहीं थे। उनके उल्लेखों में समानता इस बात की साक्षी है कि तथ्य क्या है और साहित्यिक कल्पना क्या होती है ? कल्पना को भी विकसित होने के लिये किसी ठोस धरातल की आवश्यकता होती है।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में वर्णित ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र जैसे अस्त्र अवश्य ही परमाणु शक्ति से सम्पन्न थे, किन्तु हम स्वयं ही अपने प्राचीन ग्रंथों में वर्णित विवरणों को मिथक मानते हैं और उनके आख्यान तथा उपाख्यानों को कपोल कल्पना, हमारा ऐसा मानना केवल हमें मिली दूषित शिक्षा का परिणाम है जो कि, अपने धर्मग्रंथों के प्रति आस्था रखने वाले पूर्वाग्रह से युक्त, पाश्चात्य विद्वानों की देन है, पता नहीं हम कभी इस दूषित शिक्षा से मुक्त होकर अपनी शिक्षानीति के अनुरूप शिक्षा प्राप्त कर भी पाएँगे या नहीं।
जिन हिंदुओं को सिख इतिहास का नहीं पता तो वो ये बातें जान ले । कई हिन्दू भाई सिखों के बारे मे बहुत सी गलत फहमियाँ रखते है उसकी वजह कुछ ओर नहीं हमे स्कूल मे पढ़ाई जा रही सेकुलर शिक्षा है । जिसमे मुझे पढ़ाया जाता है के अकबर महान था वहाँ साथ मे ये लाइन क्यों नहो जोड़ी के वो हिन्दू राजाओं से जबरन उनकी लड़कियों की डोली(निकाह) मांगता था । स्कूल की किताब मे क्यो नहीं जोड़ा के दशमेश पिता गुरु गोविंद सिंह महाराज ने इस्लामिक जेहादियों से हिंदुओं की रक्षा करते हुए अपना सारा वंश दान कर दिया मतलब अपने 2 बेटों को युद्ध मे शहादत दिलवाई ओर 2 बेटों को जिंदा दीवार मे चिनवाने के दर्द सहा ।पर इस्लाम के आगे कभी घुटने नहीं टेके ।6वी पातशाही महाराज को मुसलमानो ने गरम तवे पे पर बैठाया पर उन्होने इस्लाम को नहीं माना । ये सब बातें मुझे स्कूल की किताबों मे क्यों नहीं पढ़ाई गयी ।
84 मे हम हिन्दू सिखों को कॉंग्रेस ने आपस मे लड़वाया । फिर भी पता नहीं सिख भाई कैसे खांग्रेस को वोट देते है ।
सभी हिन्दू भाई सिख इतिहास खुद भी पढे ओर अपने बच्चों को भी पढ़ाएँ व अपनी अशिक्षा को दूर कर युवा पीढ़ी मे साहस ओर देश भगती का गुण पैदा करे
जय श्री राम * सत श्री अकाल साहेब
"..मैं भगवान राम पर विश्वास करता हूँ और मुझे भरोसा है कि रामसेतु पर भगवान राम के चरण पड़े थे, इसलिए मैं रामसेतु तोड़ने के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में सरकार की पैरवी नहीं कर सकता..." इन कड़े शब्दों के तमाचे के साथ सरकार के महाधिवक्ता मोहन परासरण ने काँग्रेस-डीएमके को झटका देते हुए खुद को मामले से अलग कर लिया है... ==================
अभी तक तो यूपीए को सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ही तमाचे लगाता रहता था, अब खुद उनके अपने अधिकारी भी समझने लगे हैं कि यह सरकार सिर्फ हिन्दू-द्रोह और हिन्दू-द्वेष की घटिया राजनीति कर रही है...
पारासरन साहब बधाई के हकदार हैं...
साकार का अर्थ हुआ जिसका कोई आकार हो हाथ पैर मुह वगैरह और निराकार का मतलब हुआ जिसका कोई आकार ना हो पर मित्रो आपको जानकार आश्चर्य होगा की वेद का इश्वर इन् दोनों से परेह ना तो वो साकार है और ना ही निराकार है क्योंकि साकार का मतलब मै लिख चूका हु पर निराकार का मतलब क्या हुआ निराकार का मतलब जिसका कोई आकर ना हो मतलब आकाश तत्व यदि नही तो मुझे बताइए की आकाश तत्व का क्या आकर है किसी के पास है उत्तर और ये आकाश तत्व ही समय की रचनाकर्ता है आइन्स्टीन के अनुसार दोनों में छुपा हुआ कनेक्शन है एक रहेगा तो दूसरा अपने आप आ जायेगा और अगर एक नही रहेगा तो दूसरा अपने आप मिट जायेगा
और जब इश्वर आकाश तत्व से हट जाता है तो वो अपने आप सभी आयामों से हट जाता है तब वो किसी आयामों की श्रृंखला में नही आता है तो उस तरह आइन्स्टीन का इश्वर अगर कही है तो वो वेद का ही इश्वर हो सकता है और कही का नही क्योंकि वेद के इश्वर ने ही इस आकाश तत्व की रचना की है
आकाश तत्व का रंग काला है अब आप बताइए कृष्ण का रंग क्या था जी हां इनके श्याम रंग का रहस्य ठीक यही है की सम्पूर्ण आकाश तत्व उनमे ही समाहित है वैसे कही कही उनका रंग नीला भी दिखाया जाया है उनकी मूर्तियों में इसका रहस्य ये है की दिन में आकाश का रंग नीला होता है और रात में कला इसका सिर्फ यही अर्थ की आकाश तत्व उनमे ही समाहित है उनमे से ही निकला है
साभार nitin mishra
अक्सर जब हम मंदिर जाते है तो पंडित जी हमें भगवान का चरणामृत देते है.क्या कभी हमने ये जानने की कोशिश की.कि चरणामृतका क्या महत्व है.शास्त्रों में कहा गया हैअकाल मृत्युहरणं सर्वव्याधि विनाशनम्।विष्णो: पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ।।
"अर्थात भगवान विष्णु के चरण का अमृत रूपी जल समस्त पाप- व्याधियोंका शमन करने वाला है तथा औषधी के समान है। जो चरणामृत पीता है उसका पुनः जन्म नहीं होता"
जल तब तक जल ही रहता है जब तक भगवान के चरणों से नहीं लगता,
जैसे ही भगवान के चरणों से लगा तो अमृत रूप हो गया और चरणामृत बन जाता है.
जब भगवान का वामन अवतार हुआ,
और वे राजा बलि की यज्ञ शाला में दान लेने गए तब उन्होंने तीन पग में तीन लोक नाप लिए जब उन्होंने पहले पग में नीचे के लोक नाप लिए और दूसरे मेंऊपर के लोक नापने लगे तो जैसे ही ब्रह्म लोक में उनका चरण गया तो ब्रह्मा जी ने अपने कमंडलु में से जल लेकर भगवान के चरण धोए और फिर चरणामृत को वापस अपने कमंडल में रख लिया.वह चरणामृत गंगा जी बन गई,
जो आज भी सारी दुनिया के पापों को धोती है,
ये शक्ति उनके पास कहाँ से आई ये शक्ति है भगवान के चरणों की.
जिस पर ब्रह्मा जी ने साधारण जल चढाया था पर चरणों का स्पर्श होते ही बन गई गंगा जी .
जब हम बाँके बिहारी जी की आरती गाते है तो कहते है -
"चरणों से निकली गंगा प्यारी जिसने सारी दुनिया तारी "
धर्म में इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है तथा मस्तक से लगाने के बाद इसका सेवन किया जाता है।
चरणामृत का सेवन अमृत के समान माना गया है।
कहते हैं भगवान श्री राम के चरण धोकर उसे चरणामृत के रूप में स्वीकार कर केवट न केवल स्वयं भव-बाधा से पार हो गया बल्कि उसने अपने पूर्वजों को भी तार दिया।
चरणामृत का महत्व सिर्फ धार्मिक ही नहीं चिकित्सकीय भी है।
चरणामृत का जल हमेशा तांबे के पात्र में रखा जाता है।
आयुर्वेदिक मतानुसार तांबे के पात्र में अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति होती है जो उसमें रखे जल में आ जाती है।
उस जल का सेवन करने से शरीर में रोगों से लडऩे की क्षमता पैदा हो जाती है तथा रोग नहीं होते।
इसमें तुलसी के पत्ते डालने की परंपरा भी है जिससे इस जल की रोगनाशक क्षमता और भी बढ़ जाती है। तुलसी के पत्ते पर जल इतने परिमाण में होना चाहिए कि सरसों का दाना उसमें डूब जाए।
ऐसा माना जाता है कि तुलसी चरणामृत लेने से मेधा, बुद्धि, स्मरण शक्ति को बढ़ाता है।
इसीलिए यह मान्यता है कि भगवान का चरणामृत औषधी के समान है। यदि उसमें तुलसी पत्र भी मिला दिया जाए तो उसके औषधीय गुणों में और भी वृद्धि हो जाती है।
कहते हैं सीधे हाथ में तुलसी चरणामृत ग्रहण करने से हर शुभ काम या अच्छे काम का जल्द परिणाम मिलता है। इसीलिए चरणामृत हमेशा सीधे हाथ से लेना चाहिये, लेकिन चरणामृत लेने के बाद अधिकतर लोगों की आदत होती है कि वे अपना हाथ सिर पर फेरते हैं।
चरणामृत लेने के बाद सिर पर हाथ रखना सही है या नहीं यह बहुत कम लोग जानते हैं?
दरअसल शास्त्रों के अनुसार चरणामृत लेकर सिर पर हाथ रखना अच्छा नहीं माना जाता है।
कहते हैं इससे विचारों में सकारात्मकता नहीं बल्कि नकारात्मकता बढ़ती है।
इसीलिए चरणामृत लेकर कभी भी सिर पर हाथ नहीं फेरना चाहिए