रामायण-और-महाभारत-में-भी-प रमाणु-बम-का-प्रमाण
जी हाँ सही पढ़ रहे हैं आप । आदि अनंत एवं सनातन के प्रभु विश्वकर्मा जो कि नाना प्रकार के दैवीय अस्त्र-शस्त्र के निर्माणकर्ता रहे हैं। प्रमाणों के अनुसार देवराज इन्द्र के लिए बनाया गया ऋषि दधीचि की अस्थियों का वज्र एक ऐसा ही महा विनाशकरी हथियार था। आज के आधुनिक कालीन में जब विज्ञान परमाणु बमों की खोज कर रहा है। ये सब हिन्दू सभ्यता में पहले ही खोजे जा चुके हैं और सारे निर्माणों के कर्ता-धर्ता भगवान विश्वकर्मा हैं जिनके हम वंशज हैं।
आधुनिक भारत में अंग्रेजों के समय से जो इतिहास पढ़ाया जाता है वह चन्द्रगुप्त मौर्य के वंश से आरम्भ होता है। उससे पूर्व के इतिहास को ‘प्रमाण-रहित’ कहकर नकार दिया जाता है। हमारे ‘देशी अंग्रेजों’ को यदि सर जान मार्शल प्रमाणित नहीं करते तो हमारे ’बुद्धिजीवियों’ को विश्वास ही नहीं होना था कि हड़प्पा और मोहन जोदड़ो स्थल ईसा से लगभग 5000 वर्ष पूर्व के समय के हैं और वहाँ पर ही विश्व की प्रथम सभ्यता ने जन्म लिया था।
विदेशी इतिहासकारों के उल्लेख-
विश्व की प्राचीनतम् सिन्धुघाटी सभ्यता मोहन जोदड़ो के बारे में पाये गये उल्लेखों को सुलझाने के प्रयत्न अभी भी चल रहे हैं। जब पुरातत्व शास्त्रियों ने पिछली शताब्दी में मोहन जोदड़ो स्थल की खुदाई के अवशेषों का निरीक्षण किया था तो उन्होंने देखा कि वहाँ की गलियों में नर-कंकाल पड़े थे। कई अस्थि पिंजर चित अवस्था में लेटे थे और कई अस्थि पिंजरों ने एक दूसरे के हाथ इस तरह पकड़ रखे थे मानों किसी विपत्ति नें उन्हें अचानक उस अवस्था में पहुँचा दिया था।
उन नर कंकालों पर उसी प्रकार की रेडियो-ऐक्टीविटी के चिन्ह थे जैसे कि जापानी नगर हिरोशिमा और नागासाकी के कंकालों पर एटम बम विस्फोट के पश्चात देखे गये थे। मोहन जोदड़ो स्थल के अवशेषों पर नाईट्रिफिकेशन के जो चिन्ह पाये गये थे उसका कोई स्पष्ट कारण नहीं था क्योंकि ऐसी अवस्था केवल अणु बम के विस्फोट के पश्चात ही हो सकती है।
मोहनजोदड़ो की भौगोलिक स्थिति-
मोहन जोदड़ो सिन्धु नदी के दो टापुओं पर स्थित है। उसके चारों ओर दो किलोमीटर के क्षेत्र में तीन प्रकार की तबाही देखी जा सकती है जो मध्य केन्द्र से आरम्भ होकर बाहर की तरफ गोलाकार फैल गयी थी। पुरातत्व विशेषज्ञों ने पाया कि मिट्टी चूने के बर्तनों के अवशेष किसी ऊष्णता के कारण पिघल कर एक दूसरे के साथ जुड़ गये थे। हजारों की संख्या में वहां पर पाये गये ढेरों (मलवों) को पुरात्तव विशेषज्ञों ने काले पत्थरों ‘ब्लैक-स्टोन्स’ की संज्ञा दी। वैसी दशा किसी ज्वालामुखी से निकलने वाले लावे की राख के सूख जाने के कारण होती है। किन्तु मोहन जोदड़ो स्थल के आस पास कहीं भी कोई ज्वालामुखी की राख जमी हुयी नहीं पाई गयी।
निष्कर्ष यही हो सकता है कि किसी कारण अचानक ऊष्णता 2000 डिग्री तक पहुँची जिसमें चीनी मिट्टी के पके हुये बर्तन भी पिघल गये। अगर ज्वालामुखी नहीं था तो इस प्रकार की घटना अणु बम के विस्फोट के पश्चात ही घटती है।
महाभारत के आलेख-
इतिहास मौन है परन्तु महाभारत युद्ध में महासंहारक क्षमता वाले अस्त्र शस्त्रों और विमान व रथों के साथ एक एटामिक प्रकार के युद्ध का उल्लेख भी मिलता है। महाभारत में उल्लेख है कि मय दानव के विमान रथ का परिवृत 12 क्यूबिट था और उसमें चार पहिये लगे थे। देव-दानवों के इस युद्ध का वर्णन स्वरूप इतना विशाल है जैसे कि हम आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से लैस सेनाओं के मध्य परिकल्पना कर सकते हैं। इस युद्ध के वृतान्त से बहुत महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। केवल संहारक शस्त्रों का ही प्रयोग नहीं अपितु इन्द्र के वज्र अपने चक्रदार रफलेक्टर के माध्यम से संहारक रूप में प्रगट होता है। उस अस्त्र को जब दागा गया तो एक विशालकाय अग्नि पुंज की तरह उसने अपने लक्ष्य को निगल लिया था। वह विनाश कितना भयावह था इसका अनुमान महाभारत के निम्न स्पष्ट वर्णन से लगाया जा सकता हैः-
‘‘अत्यन्त शक्तिशाली विमान से एक शक्तियुक्त अस्त्र प्रक्षेपित किया गया धुएँ के साथ अत्यन्त चमकदार ज्वाला, जिसकी चमक दस हजार सूर्यों के चमक के बराबर थी, का अत्यन्त भव्य स्तम्भ उठा वह वज्र के समान अज्ञात अस्त्र साक्षात् मृत्यु का भीमकाय दूत था जिसने वृष्ण और अंधक के समस्त वंश को भस्म करके राख बना दिया। उनके शव इस प्रकार से जल गए थे कि पहचानने योग्य नहीं थे। उनके बाल और नाखून अलग होकर गिर गए थे। बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के बर्तन टूट गए थे और पक्षी सफेद पड़ चुके थे। कुछ ही घण्टों में समस्त खाद्य पदार्थ संक्रमित होकर विषैले हो गए। उस अग्नि से बचने के लिए योद्धाओं ने स्वयं को अपने अस्त्र-शस्त्रों सहित जलधाराओं में डुबा लिया’’
उपरोक्त वर्णन दृश्यरूप में हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु विस्फोट के दृश्य जैसा दृष्टिगत होता है।
एक अन्य वृतान्त में श्रीकृष्ण अपने प्रतिद्वन्दी शल्व का आकाश में पीछा करते हैं। उसी समय आकाश में शल्व का विमान ‘शुभः’ अदृष्य हो जाता है। उसको नष्ट करने के विचार से श्रीकृष्ण नें एक ऐसा अस्त्र छोड़ा जो आवाज के माध्यम से शत्रु को खोज कर उसे लक्ष्य कर सकता था। आजकल ऐसे मिसाईल्स को हीट-सीकिंग और साऊड-सीकरस कहते हैं और आधुनिक सेनाओं द्वारा प्रयोग किये जाते हैं।
राजस्थान से भी-
प्राचीन भारत में परमाणु विस्फोट के अन्य और भी अनेक साक्ष्य मिलते हैं। राजस्थान में जोधपुर से पश्चिम दिशा में लगभग दस मील की दूरी पर तीन वर्गमील का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पर रेडियोएक्टिव राख की मोटी सतह पाई जाती है, वैज्ञानिकों ने उसके पास एक प्राचीन नगर को खोद निकाला है जिसके समस्त भवन और लगभग पाँच लाख निवासी आज से लगभग 8,000 से 12,000 साल पूर्व किसी विस्फोट के कारण नष्ट हो गए थे।
‘लक्ष्मण-रेखा’ प्रकार की अदृष्य ‘इलेक्ट्रानिक फैंस’ तो कोठियों में आज कल पालतू जानवरों को सीमित रखने के लिये प्रयोग की जाती हैं, अपने आप खुलने और बन्द हो जाने वाले दरवाजे किसी भी माल में जा कर देखे जा सकते हैं। यह सभी चीजें पहले आश्चर्य जनक थीं परन्तु आज एक आम बात बन चुकी है। ‘मन की गति से चलने वाले’ रावण के पुष्पक-विमान का ‘प्रोटोटाईप’ भी उड़ान भरने के लिये चीन ने बना लिया है।
निःसंदेह रामायण तथा महाभारत के ग्रंथकार दो पृथक-पृथक ऋषि थे और आजकल की सेनाओं के साथ उनका कोई सम्बन्ध नहीं था। वह दोनांे महाऋषि थे और किसी साईंटिफिक फिक्शन के थ्रिल्लर-राईटर नहीं थे। उनके उल्लेखों में समानता इस बात की साक्षी है कि तथ्य क्या है और साहित्यिक कल्पना क्या होती है ? कल्पना को भी विकसित होने के लिये किसी ठोस धरातल की आवश्यकता होती है।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में वर्णित ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र जैसे अस्त्र अवश्य ही परमाणु शक्ति से सम्पन्न थे, किन्तु हम स्वयं ही अपने प्राचीन ग्रंथों में वर्णित विवरणों को मिथक मानते हैं और उनके आख्यान तथा उपाख्यानों को कपोल कल्पना, हमारा ऐसा मानना केवल हमें मिली दूषित शिक्षा का परिणाम है जो कि, अपने धर्मग्रंथों के प्रति आस्था रखने वाले पूर्वाग्रह से युक्त, पाश्चात्य विद्वानों की देन है, पता नहीं हम कभी इस दूषित शिक्षा से मुक्त होकर अपनी शिक्षानीति के अनुरूप शिक्षा प्राप्त कर भी पाएँगे या नहीं।
जी हाँ सही पढ़ रहे हैं आप । आदि अनंत एवं सनातन के प्रभु विश्वकर्मा जो कि नाना प्रकार के दैवीय अस्त्र-शस्त्र के निर्माणकर्ता रहे हैं। प्रमाणों के अनुसार देवराज इन्द्र के लिए बनाया गया ऋषि दधीचि की अस्थियों का वज्र एक ऐसा ही महा विनाशकरी हथियार था। आज के आधुनिक कालीन में जब विज्ञान परमाणु बमों की खोज कर रहा है। ये सब हिन्दू सभ्यता में पहले ही खोजे जा चुके हैं और सारे निर्माणों के कर्ता-धर्ता भगवान विश्वकर्मा हैं जिनके हम वंशज हैं।
आधुनिक भारत में अंग्रेजों के समय से जो इतिहास पढ़ाया जाता है वह चन्द्रगुप्त मौर्य के वंश से आरम्भ होता है। उससे पूर्व के इतिहास को ‘प्रमाण-रहित’ कहकर नकार दिया जाता है। हमारे ‘देशी अंग्रेजों’ को यदि सर जान मार्शल प्रमाणित नहीं करते तो हमारे ’बुद्धिजीवियों’ को विश्वास ही नहीं होना था कि हड़प्पा और मोहन जोदड़ो स्थल ईसा से लगभग 5000 वर्ष पूर्व के समय के हैं और वहाँ पर ही विश्व की प्रथम सभ्यता ने जन्म लिया था।
विदेशी इतिहासकारों के उल्लेख-
विश्व की प्राचीनतम् सिन्धुघाटी सभ्यता मोहन जोदड़ो के बारे में पाये गये उल्लेखों को सुलझाने के प्रयत्न अभी भी चल रहे हैं। जब पुरातत्व शास्त्रियों ने पिछली शताब्दी में मोहन जोदड़ो स्थल की खुदाई के अवशेषों का निरीक्षण किया था तो उन्होंने देखा कि वहाँ की गलियों में नर-कंकाल पड़े थे। कई अस्थि पिंजर चित अवस्था में लेटे थे और कई अस्थि पिंजरों ने एक दूसरे के हाथ इस तरह पकड़ रखे थे मानों किसी विपत्ति नें उन्हें अचानक उस अवस्था में पहुँचा दिया था।
उन नर कंकालों पर उसी प्रकार की रेडियो-ऐक्टीविटी के चिन्ह थे जैसे कि जापानी नगर हिरोशिमा और नागासाकी के कंकालों पर एटम बम विस्फोट के पश्चात देखे गये थे। मोहन जोदड़ो स्थल के अवशेषों पर नाईट्रिफिकेशन के जो चिन्ह पाये गये थे उसका कोई स्पष्ट कारण नहीं था क्योंकि ऐसी अवस्था केवल अणु बम के विस्फोट के पश्चात ही हो सकती है।
मोहनजोदड़ो की भौगोलिक स्थिति-
मोहन जोदड़ो सिन्धु नदी के दो टापुओं पर स्थित है। उसके चारों ओर दो किलोमीटर के क्षेत्र में तीन प्रकार की तबाही देखी जा सकती है जो मध्य केन्द्र से आरम्भ होकर बाहर की तरफ गोलाकार फैल गयी थी। पुरातत्व विशेषज्ञों ने पाया कि मिट्टी चूने के बर्तनों के अवशेष किसी ऊष्णता के कारण पिघल कर एक दूसरे के साथ जुड़ गये थे। हजारों की संख्या में वहां पर पाये गये ढेरों (मलवों) को पुरात्तव विशेषज्ञों ने काले पत्थरों ‘ब्लैक-स्टोन्स’ की संज्ञा दी। वैसी दशा किसी ज्वालामुखी से निकलने वाले लावे की राख के सूख जाने के कारण होती है। किन्तु मोहन जोदड़ो स्थल के आस पास कहीं भी कोई ज्वालामुखी की राख जमी हुयी नहीं पाई गयी।
निष्कर्ष यही हो सकता है कि किसी कारण अचानक ऊष्णता 2000 डिग्री तक पहुँची जिसमें चीनी मिट्टी के पके हुये बर्तन भी पिघल गये। अगर ज्वालामुखी नहीं था तो इस प्रकार की घटना अणु बम के विस्फोट के पश्चात ही घटती है।
महाभारत के आलेख-
इतिहास मौन है परन्तु महाभारत युद्ध में महासंहारक क्षमता वाले अस्त्र शस्त्रों और विमान व रथों के साथ एक एटामिक प्रकार के युद्ध का उल्लेख भी मिलता है। महाभारत में उल्लेख है कि मय दानव के विमान रथ का परिवृत 12 क्यूबिट था और उसमें चार पहिये लगे थे। देव-दानवों के इस युद्ध का वर्णन स्वरूप इतना विशाल है जैसे कि हम आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से लैस सेनाओं के मध्य परिकल्पना कर सकते हैं। इस युद्ध के वृतान्त से बहुत महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। केवल संहारक शस्त्रों का ही प्रयोग नहीं अपितु इन्द्र के वज्र अपने चक्रदार रफलेक्टर के माध्यम से संहारक रूप में प्रगट होता है। उस अस्त्र को जब दागा गया तो एक विशालकाय अग्नि पुंज की तरह उसने अपने लक्ष्य को निगल लिया था। वह विनाश कितना भयावह था इसका अनुमान महाभारत के निम्न स्पष्ट वर्णन से लगाया जा सकता हैः-
‘‘अत्यन्त शक्तिशाली विमान से एक शक्तियुक्त अस्त्र प्रक्षेपित किया गया धुएँ के साथ अत्यन्त चमकदार ज्वाला, जिसकी चमक दस हजार सूर्यों के चमक के बराबर थी, का अत्यन्त भव्य स्तम्भ उठा वह वज्र के समान अज्ञात अस्त्र साक्षात् मृत्यु का भीमकाय दूत था जिसने वृष्ण और अंधक के समस्त वंश को भस्म करके राख बना दिया। उनके शव इस प्रकार से जल गए थे कि पहचानने योग्य नहीं थे। उनके बाल और नाखून अलग होकर गिर गए थे। बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के बर्तन टूट गए थे और पक्षी सफेद पड़ चुके थे। कुछ ही घण्टों में समस्त खाद्य पदार्थ संक्रमित होकर विषैले हो गए। उस अग्नि से बचने के लिए योद्धाओं ने स्वयं को अपने अस्त्र-शस्त्रों सहित जलधाराओं में डुबा लिया’’
उपरोक्त वर्णन दृश्यरूप में हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु विस्फोट के दृश्य जैसा दृष्टिगत होता है।
एक अन्य वृतान्त में श्रीकृष्ण अपने प्रतिद्वन्दी शल्व का आकाश में पीछा करते हैं। उसी समय आकाश में शल्व का विमान ‘शुभः’ अदृष्य हो जाता है। उसको नष्ट करने के विचार से श्रीकृष्ण नें एक ऐसा अस्त्र छोड़ा जो आवाज के माध्यम से शत्रु को खोज कर उसे लक्ष्य कर सकता था। आजकल ऐसे मिसाईल्स को हीट-सीकिंग और साऊड-सीकरस कहते हैं और आधुनिक सेनाओं द्वारा प्रयोग किये जाते हैं।
राजस्थान से भी-
प्राचीन भारत में परमाणु विस्फोट के अन्य और भी अनेक साक्ष्य मिलते हैं। राजस्थान में जोधपुर से पश्चिम दिशा में लगभग दस मील की दूरी पर तीन वर्गमील का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पर रेडियोएक्टिव राख की मोटी सतह पाई जाती है, वैज्ञानिकों ने उसके पास एक प्राचीन नगर को खोद निकाला है जिसके समस्त भवन और लगभग पाँच लाख निवासी आज से लगभग 8,000 से 12,000 साल पूर्व किसी विस्फोट के कारण नष्ट हो गए थे।
‘लक्ष्मण-रेखा’ प्रकार की अदृष्य ‘इलेक्ट्रानिक फैंस’ तो कोठियों में आज कल पालतू जानवरों को सीमित रखने के लिये प्रयोग की जाती हैं, अपने आप खुलने और बन्द हो जाने वाले दरवाजे किसी भी माल में जा कर देखे जा सकते हैं। यह सभी चीजें पहले आश्चर्य जनक थीं परन्तु आज एक आम बात बन चुकी है। ‘मन की गति से चलने वाले’ रावण के पुष्पक-विमान का ‘प्रोटोटाईप’ भी उड़ान भरने के लिये चीन ने बना लिया है।
निःसंदेह रामायण तथा महाभारत के ग्रंथकार दो पृथक-पृथक ऋषि थे और आजकल की सेनाओं के साथ उनका कोई सम्बन्ध नहीं था। वह दोनांे महाऋषि थे और किसी साईंटिफिक फिक्शन के थ्रिल्लर-राईटर नहीं थे। उनके उल्लेखों में समानता इस बात की साक्षी है कि तथ्य क्या है और साहित्यिक कल्पना क्या होती है ? कल्पना को भी विकसित होने के लिये किसी ठोस धरातल की आवश्यकता होती है।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में वर्णित ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र जैसे अस्त्र अवश्य ही परमाणु शक्ति से सम्पन्न थे, किन्तु हम स्वयं ही अपने प्राचीन ग्रंथों में वर्णित विवरणों को मिथक मानते हैं और उनके आख्यान तथा उपाख्यानों को कपोल कल्पना, हमारा ऐसा मानना केवल हमें मिली दूषित शिक्षा का परिणाम है जो कि, अपने धर्मग्रंथों के प्रति आस्था रखने वाले पूर्वाग्रह से युक्त, पाश्चात्य विद्वानों की देन है, पता नहीं हम कभी इस दूषित शिक्षा से मुक्त होकर अपनी शिक्षानीति के अनुरूप शिक्षा प्राप्त कर भी पाएँगे या नहीं।
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