भटकल भारत को लहूलुहान करने की योजना को अंजाम देने देश के विभिन्न राज्यों में घूमा करता था
पड़ोसी मुल्क नेपाल के पोखरा में रह रहे यासीन भटकल के किराए के मकान पर जब इंटेलिजेंस ब्यूरो, बिहार पुलिस और नेपाल के अधिकारियों की एक संयुक्त टीम ने 28 अगस्त को धावा बोला तो आतंक के इस सरगना के चेहरे पर शिकन तक नहीं थी. उसने जोर देकर कहा, ''मैं इंजीनियर हूं. आप गलत आदमी को पकड़ रहे हैं.'' सीधे 200 से ज्यादा भारतीयों की हत्या के लिए जिम्मेदार यासीन ने कानून से लगातार पांच साल तक छुपते रहने के लिए हमेशा यही तिकड़म अपनाई थी.
आंखों पर पट्टी बांधकर यासीन को उठा लिया गया और एक अनजान जगह पर ले जाकर उससे पूछताछ की गई. उसने लगातार अपनी पहचान छुपाई और खुद को पाकिस्तानी पासपोर्ट धारक बताया. इस गतिरोध का अंत तब हुआ, जब पुलिसवालों ने उसकी नाक तोड़ दी. फिर उसने सारी बातें कबूल लीं.
फिलहाल नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (एनआइए) अपनी सबसे बड़ी पकड़ से दिल्ली में जवाब-तलब कर रही है और उन्हें उसकी अहमियत समझ में आने लगी है. एक गुप्तचर अधिकारी बताते हैं, ''अब तक हमने सिर्फ प्यादों को पकड़ा था. यासीन का मामला अलग है. वह इंडियन मुजाहिदीन (आइएम) के संस्थापक सदस्यों में से एक है. वह आइएम का कमांडर है, जो दूसरे आतंकियों को निर्देशित करता था. '' यासीन में काफी आत्मविश्वास था और उसे अपने किए पर कोई पछतावा नहीं था.
पिछले पांच साल के दौरान उसकी जो सनक हमने देखी, उसमें एक खास रुझान रहा: चाहे वे पुणे की जर्मन बेकरी में कोल्ड कॉफी की चुस्कियां लेते पर्यटक रहे हों, दक्षिण मुंबई में भीड़भाड़ के वक्त छोटे व्यापारी या फिर हैदराबाद के बाहरी इलाके दिलसुखनगर में डोसा खाने जाते छात्र, सब उसके धमाकों का शिकार बने. जो मासूम बच्चे उसके बम धमाकों में मारे गए, उनके बारे में पूछे जाने पर उसने कहा, ''तो क्या हुआ? लोग तो हर वक्त मरते ही रहते हैं. मेरा काम भारत सरकार को एक संदेश भेजना था. मैं चैन से सोया हूं—अपने पहले ऑपरेशन से लेकर आखिरी तक मुझे कभी भी कोई बुरा सपना नहीं आया. ''
यासीन ने अपने किए के बचाव में ग्रंथों का भी हवाला दिया. उसने भगवद् गीता का उदाहरण देकर कहा कि वह किसी की जान नहीं ले रहा था, बल्कि आत्माओं को सद्गति प्राप्त करवा रहा था. उससे सवाल पूछने वाले एक बड़े आइपीएस अधिकारी उसे माओवादियों जैसा निर्दयी बताते हैं, जो लोगों की हत्या करके भी कठोर बने रहते हैं. वे कहते हैं, ''अपने करियर में मैंने इससे ज्यादा कठोर आतंकी नहीं देखा. ''
यासीन को पकडऩे के बाद उसकी मदद से गुप्तचर अधिकारी दूसरे बम हमलों को भी टालने में कामयाब हो रहे हैं. मसलन उसने अधिकारियों को बताया था कि दो आतंकी—बिहार के समस्तीपुर का तहसीम अख्तर उर्फ मोनू और पाकिस्तानी आतंकी वकास भारत में अहम ठिकानों को निशाना बनाने के लिए घुस चुके हैं. उससे बातचीत करके अफसरों को कराची से चलने वाले आइएम की कार्यप्रणाली के बारे में भी जानकारी मिल रही है. यासीन के मुताबिक दुनियाभर में मौजूद आइएम के समर्थक उसके 'कम ताकत के धमाके करने' से नाखुश हैं. इसके चलते आइएम को लोकसभा चुनाव आने तक अहम ठिकानों पर धमाके करने के लिए नई टीमें गठित करने को मजबूर होना पड़ा है. चुनावों के समय नेताओं पर सबसे ज्यादा खतरा होता है. उसने बताया कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सबसे बड़ा निशाना थे क्योंकि उन तक पहुंचने का मतलब था कि दुनियाभर के समर्थकों से पैसे की आमद बढ़ जाती. लश्करे तैयबा की तरह आइएम को भी 26/11 के हमले के बाद खूब पैसा मिला था. यासीन की गिरफ्तारी से कुछ दिन पहले ही कराची स्थित रियाज भटकल (रिश्तेदार नहीं) ने उसे हवाला से दो लाख रु. भिजवाए थे.
आइएम के भीतर असंतोष और दरार संबंधी यासीन के दावों की जांच अब भी एजेंसियों को करनी है, लेकिन एक बात गौर करने वाली है कि आइएम के भीतर एक धड़ा असंतुष्ट और कट्टर है, जिसने अपने संस्थापकों इकबाल और रियाज भटकल के आदेश मानने बंद कर दिए हैं और सीधे अपने पाकिस्तानी आकाओं के संपर्क में रहता है. यासीन से पूछताछ में दूसरे आतंकी मामले भी हल होने की संभावना बन रही है, जैसे जुलाई, 2006 में मुंबई की ट्रेन में हुए धमाके, जिसमें 209 लोग मारे गए थे. हो सकता है कि पूछताछ में सीमा पार से आइएम को निर्देशित कर रहे तत्वों के नाम भी सामने आ जाएं.
हेडली ने बताई पाकिस्तान की भूमिका
सबसे पहले डेविड कोलमैन हेडली ने भारत के शहरों में बम धमाकों का विवरण दिया था. हेडली 26/11 हमले में शामिल था. अमेरिका की एक जेल में एनआइए के चार अफसरों से बातचीत में 2010 में उसने 'कराची प्रोजेक्ट' पर रोशनी डाली थी. भारतीय एजेंसियों को 2002 से चल रही एक साजिश का सिर्फ अंदाजा भर था. सारा अभियान पाकिस्तान के सबसे बड़े शहर से शुरू हुआ, जहां मुस्लिम नौजवानों को बम बनाने में प्रशिक्षित किया गया ताकि वे भारतीय शहरों में हल्की तीव्रता वाले आतंकी हमले कर सकें. जैसा गुप्तचर अधिकारी बताते हैं कि इन हमलों के दो मकसद थे. पहला मकसद सिलसिलेवार धमाकों से भारतीय अर्थव्यवस्था पर हमला करना था. साथ ही इस तरह हमला करना कि उसमें पाकिस्तान की संलिप्तता न जाहिर हो.
हेडली ने पाकिस्तानी फौज के एक रिटायर्ड अधिकारी 45 वर्षीय मेजर अब्दुर्रहमान हाशिम का नाम लिया था, जिसने इस प्रोजेक्ट को आइएसआइ के करीब लाने का काम किया. यह मेजर एनआइए की मोस्ट वांटेड सूची में 'गोल चेहरे वाला, लहीम-शहीम' बताया गया है, जो 'पाशा' तखल्लुस लगाता है और भारत के 50 मोस्ट वांटेड भगोड़ों की सूची में जमात-उद-दावा (जेयूडी) के हाफिज सईद और 26/11 हमले में शामिल रहे साजिद मीर के बाद तीसरे नंबर पर आता है. इसने 2002 में पाकिस्तानी फौज छोड़ी थी, जिसके बाद लश्कर के लिए फिदायीन को प्रशिक्षण देने का काम किया. यह काम आइएसआइ के एक अफसर की निगरानी में चलता रहा, जिसे हेडली ने 'कर्नल शाह' के तौर पर पहचाना है.
अब्दुर्रहमान 2008 में लश्कर से अलग हो गया और स्वतंत्र रूप से कराची का 'सेट अप' चलाने लगा. रहमान का दावा था कि वह ओसामा बिन लादेन का करीबी है. पाकिस्तानी फौज में रहते हुए उसने 2001 में तोरा बोरा से भाग रहे अल कायदा के लड़ाकों पर हमला करने से इनकार कर दिया था. रहमान ने हेडली को बताया था कि 2006 में मुंबई की ट्रेन में हुए धमाके उसके 'लड़कों' ने ही किए थे और बिन लादेन ने उसके संगठन को जुंद-उल-फिदा (फिदायीनों की फौज) नाम दिया है. रहमान ने हेडली को बताया था कि उसके लड़के भारतीय नौजवान थे.
भटकल का लड़का
इन्हीं में से एक लड़का कर्नाटक के मंगलूर से उत्तर में 140 किलोमीटर दूर स्थित कस्बे भटकल से आया था. यहां की मकदूम कॉलोनी में भटकल के घर की दीवार के उस पार से एक नाराज महिला की आवाज आती है, ''जाओ, बात नहीं करनी है. '' यह प्रतिक्रिया चौंकाती नहीं. जब कभी कोई ऐसा आतंकी हमला होता है, जिसमें आइएम का संदिग्ध हाथ बताया जाता है, पत्रकार और पुलिसवाले इसी घर में आते हैं. यही वह घर है, जहां अहमद सिद्दीबापा उर्फ यासीन भटकल का परिवार रहता है. जिस औरत की आवाज हमने सुनी, वह यासीन की मां रेहाना है. उनके देवर याकूब सिद्दीबापा बताते हैं कि वह दिनभर रोती रहती हैं. याकूब मकान के संगमरमर वाले आंगन में एक कुर्सी पर बैठे हैं. वे कहते हैं, ''एक जानने वाले ने मुझे फोन करके अहमद की गिरफ्तारी की खबर दी. देखिए, मैं भटकल में कितना मशहूर हो चुका हूं. ''
अधिकतर लोगों को याद है कि अहमद ''एक संकोची, अच्छा दिखने वाला और खुदा का खौफ रखने वाला लड़का था, जो किसी से आंख नहीं मिलाता था. '' भटकल के एक समाजकर्मी निसार अहमद कहते हैं, ''मैंने अहमद को या जैसा आप मीडिया वाले कहते हैं, यासीन को कभी आक्रामक नहीं देखा. वह देशभक्त था. हर राष्ट्रीय अवकाश पर झंडा फहराता था. ''
आज भटकलियों के बीच यासीन भटकल का नाम असहज करने वाली प्रतिक्रियाओं को जन्म देता है. अहमद के साथ पढ़े एक शख्स हमसे अनुरोध करते हैं कि उनकी पहचान न जाहिर की जाए वरना खाड़ी देश जाने की उनकी योजना मुश्किल में पड़ जाएगी. वे बताते हैं, ''अहमद जब 10वीं में था, तब मैंने उसे जाना. वह बहुत शांत था और अपने से मतलब रखता था. '' लेकिन जैसे ही यासीन की आतंकी गतिविधियां सुर्खियों में आईं, उसके इस दोस्त को तीन बार मुंबई एटीएस ने पूछताछ के लिए उठाया और एक बार बंगलुरू पुलिस भी उसे उठाकर ले गई ताकि वह अलग-अलग हुलिए में यासीन की पहचान कर सके.
गिरफ्तारी की खबर आने के बाद उसे जानने वाले सदमे में हैं कि वे कैसे उसके मासूम चेहरे की असलियत नहीं जान पाए. भटकल के नौनिहाल पब्लिक स्कूल में उसकी टीचर रही चुकीं जरीना कोला कहती हैं, ''वह अच्छे व्यवहार वाला लड़का था, जो हमारे स्कूल में तीसरी से सातवीं तक पढ़ा. मैंने उसे किसी से झगड़ते नहीं देखा. वह हमेशा क्रिकेट मैचों के दौरान भारत का समर्थन करता था. मुझे तो यकीन नहीं हो रहा. ''
याकूब बताते हैं, ''अहमद जब हाइस्कूल में था तो उसने शुरुआती दो परचे दिए, लेकिन तीसरा परचा जुमे को था, इसलिए उसने मस्जिद में नमाज में वक्त बिता दिया. यह उसकी पढ़ाई का अंत था. '' 2004 में वह जरार के पास दुबई गया, जो वहां कपड़े का धंधा करता था. जरार कारोबार में उसकी मदद करने को तैयार नहीं हुआ तो 2007 में अहमद ने गुस्से में दुबई छोड़ दिया. परिवार का दावा है कि तभी उन्होंने अंतिम बार उसे देखा था.
नफरत का भाईचारा
इस शहर में किसी को पता नहीं है कि आखिर अहमद कब यासीन बन गया, लेकिन उसने यह नाम जब चुना तभी उसकी राह बदल चुकी थी. गुप्तचर अफसरों का दावा है कि दुबई में उसकी मुलाकात रियाज भटकल से हुई, लेकिन 2007 में शायद भारत में वह इकबाल भटकल के प्रभाव में आया, जिसने उसे मुंबई और गुजरात दंगों के वीडियो दिखाकर अपने पाले में किया. माना जाता है कि यहां से वह कराची गया, जो भारत से भागे हुए लोगों की सबसे बड़ी पनाहगाह है.
वहां भटकल के ही रहने वाले शाहबंदरी बंधु इकबाल और रियाज भटकल समेत कोलकाता का गैंगस्टर आमिर रजा खान भी था, जो वहां से भागकर अपने गैंगस्टर भाई के नाम पर आसिफ रजा कमांडो फोर्स (एआरसीएफ) नाम का आतंकी संगठन चलाता था. आसिफ को जिसे गुजरात पुलिस ने 2002 में मार गिराया था. आइएसआइ ने 2007 में प्रतिबंधित सिमी, एआरसीएफ और भटकल भाइयों के संगठन को आइएम में मिला दिया और इस तरह देश में हमला करने वाला एक घरेलू आतंकी नेटवर्क तैयार हुआ.
अब तक इस प्रोजेक्ट का थोड़ा खाका ही सामने आ सका है. लेकिन यह तय है कि यासीन उन भारतीय नौजवानों की शुरुआती खेप का सदस्य रहा, जो ईरान की सीमा के करीब बलूचिस्तान के सुदूर इलाकों में आइएसआइ के प्रशिक्षण शिविरों में तैयार किए गए थे. इन्हें स्थानीय स्तर पर उपलब्ध अमोनियम नाइट्रेट और टीएनटी जैसे विस्फोटकों से आइईडी (इंप्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस) बनाना सिखाया गया क्योंकि आरडीएक्स से हमला सरकार की संलिप्तता की ओर इशारा कर सकता था. इन्हें आइईडी को बनाकर कम विस्फोटक, लेकिन ज्यादा छर्रों के साथ लगाना सिखाया गया ताकि ज्यादा नुकसान हो सके. इन्हें कम सुरक्षा वाले ठिकाने बताए गए जैसे सार्वजनिक परिवहन, बाजार, सिनेमा हॉल और पर्यटन स्थल ताकि विस्फोट का असर ज्यादा हो. इन बमों में आधुनिक संचालन प्रणाली लगी थी. इन्हें दूर से और सेलफोन से भी फोड़ा जा सकता था.
अंतरराज्यीय आतंकी
एक गुप्तचर अधिकारी बताते हैं कि कैसे सिर्फ एक मामूली गलती से आतंकियों को पकड़ लिया जाता है. दिल्ली, मुंबई और जयपुर को निशाना बनाने वाली आइएम के चार आतंकियों की एक टीम को 18 सितंबर, 2008 को दिल्ली के बटला हाउस में गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उनके मोबाइल सिम कार्ड की पहचान कर ली गई थी. यासीन 2007 में किसी वक्त नेपाल के रास्ते भारत आया था, लेकिन उसे पकड़ पाना मुश्किल था. उसने भले ही स्कूली पढ़ाई बीच में छोड़ दी थी, लेकिन उसे अच्छी कन्नड़, अंग्रेजी, उर्दू, हिंदी, फारसी और बंगाली आती थी इसलिए वह एक शिक्षित व्यक्ति की तरह बच निकलता था.
यासीन गुप्तचर गतिविधियों का महारथी था. वह अपने पाकिस्तानी आकाओं से संपर्क के लिए ईमेल का इस्तेमाल नहीं करता था. वह बार-बार अपना पता बदलता और कुछ सेकेंड की कॉल के लिए ही अपना मोबाइल इस्तेमाल करता. वह कभी भी एक सिम कार्ड और एक मोबाइल का दो बार इस्तेमाल नहीं करता था. जिन 11 सिलसिलेवार बम धमाकों को उसने कबूला है, हरेक में वह फर्जी पहचान के साथ महीनों पहले से रह रहा होता, मौके का मुआयना करता और अंत में विस्फोटक सामग्री खरीदकर आइईडी बनाता था.
दिसंबर, 2009 में कोलकाता में चोरी के एक मामूली केस में उसकी पहचान कुछ देर के लिए हो गई थी, जिसमें दो और संदिग्ध थे. लेकिन बांग्ला भाषा पर अपनी पकड़ के चलते उसने तुरंत खुद को बाहरी इलाके में रहने वाले बुल्ला मलिक के रूप में पेश कर दिया और बच गया. इस मामले में उसे दो महीने की मामूली जेल हुई, जिसके बाद एक सहयोगी ने उसकी जमानत करवाई.
यह अब तक नहीं पता है कि कोलकाता में यासीन कहां रहता था. पुलिस को दिया उसका पता फर्जी निकला. यह साफ है कि बिहार के करीब होने और बांग्लादेश तथा नेपाल के साथ खुली सीमा होने का फायदा वह यहां रहकर विस्फोटक सामग्री मंगवाने के लिए उठाता था. यह बात कोलकाता से जमानत पर छूटने के कुछ दिनों बाद ही उसने साबित कर दी थी, जब पुणे की जर्मन बेकरी में सीसीटीवी कैमरे ने एक दाढ़ी वाले नौजवान को बेसबॉल हैट और पीठ पर बैग लादे हुए कैद किया था. बाहर निकलने पर इस शख्स ने अपना बैग वहीं छोड़ दिया. कुछ देर बाद उस बैग में रखा बम फटा और 17 लोग मारे गए और 60 जख्मी हुए.
कुछ महीनों बाद 2011 में यासीन मुंबई में डॉ. इमरान नाम से एक विनम्र यूनानी डॉक्टर बनकर आया, जिसने 5, हबीब बिल्डिंग, मुंबई सेंट्रल में एक कमरा किराए पर लिया. इमरान के साथ वकास भी था. 13 जुलाई, 2011 को दक्षिण मुंबई में तीन ठिकानों पर बम फटे, जिसमें 27 लोग मारे गए और 100 जख्मी हुए. इसमें एक निशाना हबीब बिल्डिंग से दो किलोमीटर दूर ऑपेरा हाउस में भीड़भाड़ वाले पंचरत्न डायमंड सर्राफा बाजार के बाहर की सड़क भी थी. इस दौरान यह मृदुभाषी डॉक्टर, जो सेंट्रल मुंबई में अरुण गवली की व्यायामशाला में कसरत करता था, गायब हो चुका था. कमरा खाली था. वहां कोई फर्नीचर नहीं था. फर्श पर सिर्फ अखबार बिखरे थे.
फिर 2009 में यासीन इमरान बनकर दिल्ली पहुंचा. राजधानी के शाहीन बाग इलाके में उसने इरशाद खान नाम के एक शख्स के साथ मिलकर बम बनाने का कारखाना लगाया. इरशाद ने अपनी 26 साल की बेटी जाहिदा को इस बात के लिए राजी किया कि इमरान लखनऊ का एक मैकेनिकल इंजीनियर है और दोनों की शादी करा दी. यहां वह एक पांच वक्त नमाजी की तरह रह रहा था और फर्श पर सोता था. नवंबर, 2011 में जब पुलिस वहां पहुंची तो इमरान नदारद था. इस दौरान उसने सिर्फ एक रियायत यह दी कि पब्लिक बूथ से जाहिदा को फोन करके इस बात का भरोसा दिया कि वह घर से सिर्फ 20 किलोमीटर दूर है.
इस साल मई में नेपाल स्थित आइबी के मुखबिरों ने एजेंसी को बताया कि नेपाल के पोखरा में यासीन से मिलता-जुलता एक शख्स देखा गया है. इसके बाद से आइबी ने उसे अपनी निगरानी में ले लिया. वह लाल बाइक चलाता था, उसके पास दो लैपटॉप, चार सेलफोन थे और नकदी की कोई कमी नहीं थी. उसके पाकिस्तानी आकाओं के बार-बार कहने के बावजूद यासीन ने अपनी दाढ़ी नहीं कटवाई थी. यही एजेंसी के लिए सकारात्मक रहा. बिहार के पूर्वी चंपारण जिले के पुलिस अधीक्षक विनय कुमार नेपाल में एक सप्ताह से ज्यादा समय तक उसका पीछा करते रहे. गया जिले के एसएसपी के तौर पर कुमार ने जर्मन बेकरी धमाके में गिरफ्तार किए गए आइएम के चार आतंकियों से पूछताछ की थी. इस साल ईद से ठीक पहले 9 अगस्त को यासीन ने एक और गलती कर दी.
उसने नेपाल के दो मोबाइल नंबरों से अपनी पत्नी जाहिदा को तीन बार कॉल किया और इसके तुरंत बाद 1000 डॉलर उसे भेजे. इस ऑपरेशन पर आइबी के निदेशक आसिफ इब्राहिम की करीबी निगाह थी. आखिरकार आइबी और बिहार पुलिस के संयुक्त ऑपरेशन में उसे धर लिया गया. अजीब बात यह थी कि बिहार पुलिस को यासीन को अपनी हिरासत में लेने की कोई उत्सुकता नहीं थी. उनका इशारा था कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को चिंता है कि यासीन की गिरफ्तारी उनके मुस्लिम वोट बैंक पर असर डाल सकती है.
यासीन की गिरफ्तारी से आतंक के खिलाफ जंग खत्म नहीं हुई है. अब भी आइएम के भगोड़े जैसे बम विशेषज्ञ अब्दुल सुभान कुरैशी या बंगलुरू के चिन्नास्वामी स्टेडियम में 2010 में हुए धमाके का आरोपी मोनू यासीन की जगह ले सकते हैं. मेजर अब्दुर्रहमान के कराची प्रोजेक्ट के सेटअप में दिल्ली, मुंबई और पुणे के बारे में दर्जनों रेकी वीडियो और जीपीएस से मिली जानकारियां मौजूद हैं, जिन्हें डेविड हेडली ने मुहैया कराया है. इनमें दिल्ली का नेशनल डिफेंस कॉलेज है, जहां बड़े नौकरशाह और सैन्यकर्मी प्रशिक्षित किए जाते हैं. पुणे के ओशो कम्यून समेत प्रधानमंत्री आवास 7, रेसकोर्स भी इसमें शामिल है.
हालांकि अब तक आइएम के पास यासीन के मुकाबले का कोई सदस्य नहीं है, जो इन कामों को अंजाम दे सके. उसकी पकड़ से भारत को तत्काल तो कुछ राहत मिलती दिख रही है. एक गुप्तचर का कहना है, ''आइएसआइ को अगला धमाका करने में छह माह से एक साल तो लग ही जाएगा. '' इतनी लंबी लड़ाई में यह कुछ पल की राहत तो कही ही जा सकती है.
पड़ोसी मुल्क नेपाल के पोखरा में रह रहे यासीन भटकल के किराए के मकान पर जब इंटेलिजेंस ब्यूरो, बिहार पुलिस और नेपाल के अधिकारियों की एक संयुक्त टीम ने 28 अगस्त को धावा बोला तो आतंक के इस सरगना के चेहरे पर शिकन तक नहीं थी. उसने जोर देकर कहा, ''मैं इंजीनियर हूं. आप गलत आदमी को पकड़ रहे हैं.'' सीधे 200 से ज्यादा भारतीयों की हत्या के लिए जिम्मेदार यासीन ने कानून से लगातार पांच साल तक छुपते रहने के लिए हमेशा यही तिकड़म अपनाई थी.
आंखों पर पट्टी बांधकर यासीन को उठा लिया गया और एक अनजान जगह पर ले जाकर उससे पूछताछ की गई. उसने लगातार अपनी पहचान छुपाई और खुद को पाकिस्तानी पासपोर्ट धारक बताया. इस गतिरोध का अंत तब हुआ, जब पुलिसवालों ने उसकी नाक तोड़ दी. फिर उसने सारी बातें कबूल लीं.
फिलहाल नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (एनआइए) अपनी सबसे बड़ी पकड़ से दिल्ली में जवाब-तलब कर रही है और उन्हें उसकी अहमियत समझ में आने लगी है. एक गुप्तचर अधिकारी बताते हैं, ''अब तक हमने सिर्फ प्यादों को पकड़ा था. यासीन का मामला अलग है. वह इंडियन मुजाहिदीन (आइएम) के संस्थापक सदस्यों में से एक है. वह आइएम का कमांडर है, जो दूसरे आतंकियों को निर्देशित करता था. '' यासीन में काफी आत्मविश्वास था और उसे अपने किए पर कोई पछतावा नहीं था.
पिछले पांच साल के दौरान उसकी जो सनक हमने देखी, उसमें एक खास रुझान रहा: चाहे वे पुणे की जर्मन बेकरी में कोल्ड कॉफी की चुस्कियां लेते पर्यटक रहे हों, दक्षिण मुंबई में भीड़भाड़ के वक्त छोटे व्यापारी या फिर हैदराबाद के बाहरी इलाके दिलसुखनगर में डोसा खाने जाते छात्र, सब उसके धमाकों का शिकार बने. जो मासूम बच्चे उसके बम धमाकों में मारे गए, उनके बारे में पूछे जाने पर उसने कहा, ''तो क्या हुआ? लोग तो हर वक्त मरते ही रहते हैं. मेरा काम भारत सरकार को एक संदेश भेजना था. मैं चैन से सोया हूं—अपने पहले ऑपरेशन से लेकर आखिरी तक मुझे कभी भी कोई बुरा सपना नहीं आया. ''
यासीन ने अपने किए के बचाव में ग्रंथों का भी हवाला दिया. उसने भगवद् गीता का उदाहरण देकर कहा कि वह किसी की जान नहीं ले रहा था, बल्कि आत्माओं को सद्गति प्राप्त करवा रहा था. उससे सवाल पूछने वाले एक बड़े आइपीएस अधिकारी उसे माओवादियों जैसा निर्दयी बताते हैं, जो लोगों की हत्या करके भी कठोर बने रहते हैं. वे कहते हैं, ''अपने करियर में मैंने इससे ज्यादा कठोर आतंकी नहीं देखा. ''
यासीन को पकडऩे के बाद उसकी मदद से गुप्तचर अधिकारी दूसरे बम हमलों को भी टालने में कामयाब हो रहे हैं. मसलन उसने अधिकारियों को बताया था कि दो आतंकी—बिहार के समस्तीपुर का तहसीम अख्तर उर्फ मोनू और पाकिस्तानी आतंकी वकास भारत में अहम ठिकानों को निशाना बनाने के लिए घुस चुके हैं. उससे बातचीत करके अफसरों को कराची से चलने वाले आइएम की कार्यप्रणाली के बारे में भी जानकारी मिल रही है. यासीन के मुताबिक दुनियाभर में मौजूद आइएम के समर्थक उसके 'कम ताकत के धमाके करने' से नाखुश हैं. इसके चलते आइएम को लोकसभा चुनाव आने तक अहम ठिकानों पर धमाके करने के लिए नई टीमें गठित करने को मजबूर होना पड़ा है. चुनावों के समय नेताओं पर सबसे ज्यादा खतरा होता है. उसने बताया कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सबसे बड़ा निशाना थे क्योंकि उन तक पहुंचने का मतलब था कि दुनियाभर के समर्थकों से पैसे की आमद बढ़ जाती. लश्करे तैयबा की तरह आइएम को भी 26/11 के हमले के बाद खूब पैसा मिला था. यासीन की गिरफ्तारी से कुछ दिन पहले ही कराची स्थित रियाज भटकल (रिश्तेदार नहीं) ने उसे हवाला से दो लाख रु. भिजवाए थे.
आइएम के भीतर असंतोष और दरार संबंधी यासीन के दावों की जांच अब भी एजेंसियों को करनी है, लेकिन एक बात गौर करने वाली है कि आइएम के भीतर एक धड़ा असंतुष्ट और कट्टर है, जिसने अपने संस्थापकों इकबाल और रियाज भटकल के आदेश मानने बंद कर दिए हैं और सीधे अपने पाकिस्तानी आकाओं के संपर्क में रहता है. यासीन से पूछताछ में दूसरे आतंकी मामले भी हल होने की संभावना बन रही है, जैसे जुलाई, 2006 में मुंबई की ट्रेन में हुए धमाके, जिसमें 209 लोग मारे गए थे. हो सकता है कि पूछताछ में सीमा पार से आइएम को निर्देशित कर रहे तत्वों के नाम भी सामने आ जाएं.
हेडली ने बताई पाकिस्तान की भूमिका
सबसे पहले डेविड कोलमैन हेडली ने भारत के शहरों में बम धमाकों का विवरण दिया था. हेडली 26/11 हमले में शामिल था. अमेरिका की एक जेल में एनआइए के चार अफसरों से बातचीत में 2010 में उसने 'कराची प्रोजेक्ट' पर रोशनी डाली थी. भारतीय एजेंसियों को 2002 से चल रही एक साजिश का सिर्फ अंदाजा भर था. सारा अभियान पाकिस्तान के सबसे बड़े शहर से शुरू हुआ, जहां मुस्लिम नौजवानों को बम बनाने में प्रशिक्षित किया गया ताकि वे भारतीय शहरों में हल्की तीव्रता वाले आतंकी हमले कर सकें. जैसा गुप्तचर अधिकारी बताते हैं कि इन हमलों के दो मकसद थे. पहला मकसद सिलसिलेवार धमाकों से भारतीय अर्थव्यवस्था पर हमला करना था. साथ ही इस तरह हमला करना कि उसमें पाकिस्तान की संलिप्तता न जाहिर हो.
हेडली ने पाकिस्तानी फौज के एक रिटायर्ड अधिकारी 45 वर्षीय मेजर अब्दुर्रहमान हाशिम का नाम लिया था, जिसने इस प्रोजेक्ट को आइएसआइ के करीब लाने का काम किया. यह मेजर एनआइए की मोस्ट वांटेड सूची में 'गोल चेहरे वाला, लहीम-शहीम' बताया गया है, जो 'पाशा' तखल्लुस लगाता है और भारत के 50 मोस्ट वांटेड भगोड़ों की सूची में जमात-उद-दावा (जेयूडी) के हाफिज सईद और 26/11 हमले में शामिल रहे साजिद मीर के बाद तीसरे नंबर पर आता है. इसने 2002 में पाकिस्तानी फौज छोड़ी थी, जिसके बाद लश्कर के लिए फिदायीन को प्रशिक्षण देने का काम किया. यह काम आइएसआइ के एक अफसर की निगरानी में चलता रहा, जिसे हेडली ने 'कर्नल शाह' के तौर पर पहचाना है.
अब्दुर्रहमान 2008 में लश्कर से अलग हो गया और स्वतंत्र रूप से कराची का 'सेट अप' चलाने लगा. रहमान का दावा था कि वह ओसामा बिन लादेन का करीबी है. पाकिस्तानी फौज में रहते हुए उसने 2001 में तोरा बोरा से भाग रहे अल कायदा के लड़ाकों पर हमला करने से इनकार कर दिया था. रहमान ने हेडली को बताया था कि 2006 में मुंबई की ट्रेन में हुए धमाके उसके 'लड़कों' ने ही किए थे और बिन लादेन ने उसके संगठन को जुंद-उल-फिदा (फिदायीनों की फौज) नाम दिया है. रहमान ने हेडली को बताया था कि उसके लड़के भारतीय नौजवान थे.
भटकल का लड़का
इन्हीं में से एक लड़का कर्नाटक के मंगलूर से उत्तर में 140 किलोमीटर दूर स्थित कस्बे भटकल से आया था. यहां की मकदूम कॉलोनी में भटकल के घर की दीवार के उस पार से एक नाराज महिला की आवाज आती है, ''जाओ, बात नहीं करनी है. '' यह प्रतिक्रिया चौंकाती नहीं. जब कभी कोई ऐसा आतंकी हमला होता है, जिसमें आइएम का संदिग्ध हाथ बताया जाता है, पत्रकार और पुलिसवाले इसी घर में आते हैं. यही वह घर है, जहां अहमद सिद्दीबापा उर्फ यासीन भटकल का परिवार रहता है. जिस औरत की आवाज हमने सुनी, वह यासीन की मां रेहाना है. उनके देवर याकूब सिद्दीबापा बताते हैं कि वह दिनभर रोती रहती हैं. याकूब मकान के संगमरमर वाले आंगन में एक कुर्सी पर बैठे हैं. वे कहते हैं, ''एक जानने वाले ने मुझे फोन करके अहमद की गिरफ्तारी की खबर दी. देखिए, मैं भटकल में कितना मशहूर हो चुका हूं. ''
अधिकतर लोगों को याद है कि अहमद ''एक संकोची, अच्छा दिखने वाला और खुदा का खौफ रखने वाला लड़का था, जो किसी से आंख नहीं मिलाता था. '' भटकल के एक समाजकर्मी निसार अहमद कहते हैं, ''मैंने अहमद को या जैसा आप मीडिया वाले कहते हैं, यासीन को कभी आक्रामक नहीं देखा. वह देशभक्त था. हर राष्ट्रीय अवकाश पर झंडा फहराता था. ''
आज भटकलियों के बीच यासीन भटकल का नाम असहज करने वाली प्रतिक्रियाओं को जन्म देता है. अहमद के साथ पढ़े एक शख्स हमसे अनुरोध करते हैं कि उनकी पहचान न जाहिर की जाए वरना खाड़ी देश जाने की उनकी योजना मुश्किल में पड़ जाएगी. वे बताते हैं, ''अहमद जब 10वीं में था, तब मैंने उसे जाना. वह बहुत शांत था और अपने से मतलब रखता था. '' लेकिन जैसे ही यासीन की आतंकी गतिविधियां सुर्खियों में आईं, उसके इस दोस्त को तीन बार मुंबई एटीएस ने पूछताछ के लिए उठाया और एक बार बंगलुरू पुलिस भी उसे उठाकर ले गई ताकि वह अलग-अलग हुलिए में यासीन की पहचान कर सके.
गिरफ्तारी की खबर आने के बाद उसे जानने वाले सदमे में हैं कि वे कैसे उसके मासूम चेहरे की असलियत नहीं जान पाए. भटकल के नौनिहाल पब्लिक स्कूल में उसकी टीचर रही चुकीं जरीना कोला कहती हैं, ''वह अच्छे व्यवहार वाला लड़का था, जो हमारे स्कूल में तीसरी से सातवीं तक पढ़ा. मैंने उसे किसी से झगड़ते नहीं देखा. वह हमेशा क्रिकेट मैचों के दौरान भारत का समर्थन करता था. मुझे तो यकीन नहीं हो रहा. ''
याकूब बताते हैं, ''अहमद जब हाइस्कूल में था तो उसने शुरुआती दो परचे दिए, लेकिन तीसरा परचा जुमे को था, इसलिए उसने मस्जिद में नमाज में वक्त बिता दिया. यह उसकी पढ़ाई का अंत था. '' 2004 में वह जरार के पास दुबई गया, जो वहां कपड़े का धंधा करता था. जरार कारोबार में उसकी मदद करने को तैयार नहीं हुआ तो 2007 में अहमद ने गुस्से में दुबई छोड़ दिया. परिवार का दावा है कि तभी उन्होंने अंतिम बार उसे देखा था.
नफरत का भाईचारा
इस शहर में किसी को पता नहीं है कि आखिर अहमद कब यासीन बन गया, लेकिन उसने यह नाम जब चुना तभी उसकी राह बदल चुकी थी. गुप्तचर अफसरों का दावा है कि दुबई में उसकी मुलाकात रियाज भटकल से हुई, लेकिन 2007 में शायद भारत में वह इकबाल भटकल के प्रभाव में आया, जिसने उसे मुंबई और गुजरात दंगों के वीडियो दिखाकर अपने पाले में किया. माना जाता है कि यहां से वह कराची गया, जो भारत से भागे हुए लोगों की सबसे बड़ी पनाहगाह है.
वहां भटकल के ही रहने वाले शाहबंदरी बंधु इकबाल और रियाज भटकल समेत कोलकाता का गैंगस्टर आमिर रजा खान भी था, जो वहां से भागकर अपने गैंगस्टर भाई के नाम पर आसिफ रजा कमांडो फोर्स (एआरसीएफ) नाम का आतंकी संगठन चलाता था. आसिफ को जिसे गुजरात पुलिस ने 2002 में मार गिराया था. आइएसआइ ने 2007 में प्रतिबंधित सिमी, एआरसीएफ और भटकल भाइयों के संगठन को आइएम में मिला दिया और इस तरह देश में हमला करने वाला एक घरेलू आतंकी नेटवर्क तैयार हुआ.
अब तक इस प्रोजेक्ट का थोड़ा खाका ही सामने आ सका है. लेकिन यह तय है कि यासीन उन भारतीय नौजवानों की शुरुआती खेप का सदस्य रहा, जो ईरान की सीमा के करीब बलूचिस्तान के सुदूर इलाकों में आइएसआइ के प्रशिक्षण शिविरों में तैयार किए गए थे. इन्हें स्थानीय स्तर पर उपलब्ध अमोनियम नाइट्रेट और टीएनटी जैसे विस्फोटकों से आइईडी (इंप्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस) बनाना सिखाया गया क्योंकि आरडीएक्स से हमला सरकार की संलिप्तता की ओर इशारा कर सकता था. इन्हें आइईडी को बनाकर कम विस्फोटक, लेकिन ज्यादा छर्रों के साथ लगाना सिखाया गया ताकि ज्यादा नुकसान हो सके. इन्हें कम सुरक्षा वाले ठिकाने बताए गए जैसे सार्वजनिक परिवहन, बाजार, सिनेमा हॉल और पर्यटन स्थल ताकि विस्फोट का असर ज्यादा हो. इन बमों में आधुनिक संचालन प्रणाली लगी थी. इन्हें दूर से और सेलफोन से भी फोड़ा जा सकता था.
अंतरराज्यीय आतंकी
एक गुप्तचर अधिकारी बताते हैं कि कैसे सिर्फ एक मामूली गलती से आतंकियों को पकड़ लिया जाता है. दिल्ली, मुंबई और जयपुर को निशाना बनाने वाली आइएम के चार आतंकियों की एक टीम को 18 सितंबर, 2008 को दिल्ली के बटला हाउस में गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उनके मोबाइल सिम कार्ड की पहचान कर ली गई थी. यासीन 2007 में किसी वक्त नेपाल के रास्ते भारत आया था, लेकिन उसे पकड़ पाना मुश्किल था. उसने भले ही स्कूली पढ़ाई बीच में छोड़ दी थी, लेकिन उसे अच्छी कन्नड़, अंग्रेजी, उर्दू, हिंदी, फारसी और बंगाली आती थी इसलिए वह एक शिक्षित व्यक्ति की तरह बच निकलता था.
यासीन गुप्तचर गतिविधियों का महारथी था. वह अपने पाकिस्तानी आकाओं से संपर्क के लिए ईमेल का इस्तेमाल नहीं करता था. वह बार-बार अपना पता बदलता और कुछ सेकेंड की कॉल के लिए ही अपना मोबाइल इस्तेमाल करता. वह कभी भी एक सिम कार्ड और एक मोबाइल का दो बार इस्तेमाल नहीं करता था. जिन 11 सिलसिलेवार बम धमाकों को उसने कबूला है, हरेक में वह फर्जी पहचान के साथ महीनों पहले से रह रहा होता, मौके का मुआयना करता और अंत में विस्फोटक सामग्री खरीदकर आइईडी बनाता था.
दिसंबर, 2009 में कोलकाता में चोरी के एक मामूली केस में उसकी पहचान कुछ देर के लिए हो गई थी, जिसमें दो और संदिग्ध थे. लेकिन बांग्ला भाषा पर अपनी पकड़ के चलते उसने तुरंत खुद को बाहरी इलाके में रहने वाले बुल्ला मलिक के रूप में पेश कर दिया और बच गया. इस मामले में उसे दो महीने की मामूली जेल हुई, जिसके बाद एक सहयोगी ने उसकी जमानत करवाई.
यह अब तक नहीं पता है कि कोलकाता में यासीन कहां रहता था. पुलिस को दिया उसका पता फर्जी निकला. यह साफ है कि बिहार के करीब होने और बांग्लादेश तथा नेपाल के साथ खुली सीमा होने का फायदा वह यहां रहकर विस्फोटक सामग्री मंगवाने के लिए उठाता था. यह बात कोलकाता से जमानत पर छूटने के कुछ दिनों बाद ही उसने साबित कर दी थी, जब पुणे की जर्मन बेकरी में सीसीटीवी कैमरे ने एक दाढ़ी वाले नौजवान को बेसबॉल हैट और पीठ पर बैग लादे हुए कैद किया था. बाहर निकलने पर इस शख्स ने अपना बैग वहीं छोड़ दिया. कुछ देर बाद उस बैग में रखा बम फटा और 17 लोग मारे गए और 60 जख्मी हुए.
कुछ महीनों बाद 2011 में यासीन मुंबई में डॉ. इमरान नाम से एक विनम्र यूनानी डॉक्टर बनकर आया, जिसने 5, हबीब बिल्डिंग, मुंबई सेंट्रल में एक कमरा किराए पर लिया. इमरान के साथ वकास भी था. 13 जुलाई, 2011 को दक्षिण मुंबई में तीन ठिकानों पर बम फटे, जिसमें 27 लोग मारे गए और 100 जख्मी हुए. इसमें एक निशाना हबीब बिल्डिंग से दो किलोमीटर दूर ऑपेरा हाउस में भीड़भाड़ वाले पंचरत्न डायमंड सर्राफा बाजार के बाहर की सड़क भी थी. इस दौरान यह मृदुभाषी डॉक्टर, जो सेंट्रल मुंबई में अरुण गवली की व्यायामशाला में कसरत करता था, गायब हो चुका था. कमरा खाली था. वहां कोई फर्नीचर नहीं था. फर्श पर सिर्फ अखबार बिखरे थे.
फिर 2009 में यासीन इमरान बनकर दिल्ली पहुंचा. राजधानी के शाहीन बाग इलाके में उसने इरशाद खान नाम के एक शख्स के साथ मिलकर बम बनाने का कारखाना लगाया. इरशाद ने अपनी 26 साल की बेटी जाहिदा को इस बात के लिए राजी किया कि इमरान लखनऊ का एक मैकेनिकल इंजीनियर है और दोनों की शादी करा दी. यहां वह एक पांच वक्त नमाजी की तरह रह रहा था और फर्श पर सोता था. नवंबर, 2011 में जब पुलिस वहां पहुंची तो इमरान नदारद था. इस दौरान उसने सिर्फ एक रियायत यह दी कि पब्लिक बूथ से जाहिदा को फोन करके इस बात का भरोसा दिया कि वह घर से सिर्फ 20 किलोमीटर दूर है.
इस साल मई में नेपाल स्थित आइबी के मुखबिरों ने एजेंसी को बताया कि नेपाल के पोखरा में यासीन से मिलता-जुलता एक शख्स देखा गया है. इसके बाद से आइबी ने उसे अपनी निगरानी में ले लिया. वह लाल बाइक चलाता था, उसके पास दो लैपटॉप, चार सेलफोन थे और नकदी की कोई कमी नहीं थी. उसके पाकिस्तानी आकाओं के बार-बार कहने के बावजूद यासीन ने अपनी दाढ़ी नहीं कटवाई थी. यही एजेंसी के लिए सकारात्मक रहा. बिहार के पूर्वी चंपारण जिले के पुलिस अधीक्षक विनय कुमार नेपाल में एक सप्ताह से ज्यादा समय तक उसका पीछा करते रहे. गया जिले के एसएसपी के तौर पर कुमार ने जर्मन बेकरी धमाके में गिरफ्तार किए गए आइएम के चार आतंकियों से पूछताछ की थी. इस साल ईद से ठीक पहले 9 अगस्त को यासीन ने एक और गलती कर दी.
उसने नेपाल के दो मोबाइल नंबरों से अपनी पत्नी जाहिदा को तीन बार कॉल किया और इसके तुरंत बाद 1000 डॉलर उसे भेजे. इस ऑपरेशन पर आइबी के निदेशक आसिफ इब्राहिम की करीबी निगाह थी. आखिरकार आइबी और बिहार पुलिस के संयुक्त ऑपरेशन में उसे धर लिया गया. अजीब बात यह थी कि बिहार पुलिस को यासीन को अपनी हिरासत में लेने की कोई उत्सुकता नहीं थी. उनका इशारा था कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को चिंता है कि यासीन की गिरफ्तारी उनके मुस्लिम वोट बैंक पर असर डाल सकती है.
यासीन की गिरफ्तारी से आतंक के खिलाफ जंग खत्म नहीं हुई है. अब भी आइएम के भगोड़े जैसे बम विशेषज्ञ अब्दुल सुभान कुरैशी या बंगलुरू के चिन्नास्वामी स्टेडियम में 2010 में हुए धमाके का आरोपी मोनू यासीन की जगह ले सकते हैं. मेजर अब्दुर्रहमान के कराची प्रोजेक्ट के सेटअप में दिल्ली, मुंबई और पुणे के बारे में दर्जनों रेकी वीडियो और जीपीएस से मिली जानकारियां मौजूद हैं, जिन्हें डेविड हेडली ने मुहैया कराया है. इनमें दिल्ली का नेशनल डिफेंस कॉलेज है, जहां बड़े नौकरशाह और सैन्यकर्मी प्रशिक्षित किए जाते हैं. पुणे के ओशो कम्यून समेत प्रधानमंत्री आवास 7, रेसकोर्स भी इसमें शामिल है.
हालांकि अब तक आइएम के पास यासीन के मुकाबले का कोई सदस्य नहीं है, जो इन कामों को अंजाम दे सके. उसकी पकड़ से भारत को तत्काल तो कुछ राहत मिलती दिख रही है. एक गुप्तचर का कहना है, ''आइएसआइ को अगला धमाका करने में छह माह से एक साल तो लग ही जाएगा. '' इतनी लंबी लड़ाई में यह कुछ पल की राहत तो कही ही जा सकती है.
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